Abhisar Sharma, Punya Prasun Bajpai & Ravish Kumar |
इस लोकतंत्र में जनता कहां है : 43 मौत की किमत लगी 119 लाख रुपये
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वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून जी की कलम से !
पुरानी दिल्ली में 43 मौत का जिम्मेदार कोई नहीं है । हां, इसबार मौत की किमत ज्यादा लगानी पड गई क्योकि सौ दिन बाद ही तो दिल्ली में चुनाव है । इसलिये 43 मौत की कितम लगी एक करोड 19 लाख रुपये । केजरीवाल ने तय किया प्रति मौत 10 लाख की राहत देगें । बीजेपी के आरिजनल अध्यक्ष अमित शाह ने तय किया प्रति मोत 5 लाख रुपये की राहत देगें । तो प्रधानमंत्री मोदी ने तय किया कि राहत कोष से प्रति मौत 2 लाख रुपये देंगे । फिर अगले बरस बिहार में भी तो चुना है और नीतिश कुमार बार बार दिल्ली में भी बिहारियो के बीच अपने उम्मीदवार उतारने से परहेज नहीं करते तो उन्होने भी 43 मौत में बिहारियो को अलग कर देगा और प्रति बिहारी मौत पर 2 लाख रुपये राहत देने का ऐलान कर दिया । और मुआवजे या राहत की रकम जा बैठी एक करोड 19 लाख रुपये । सामान्य स्थिति में प्रति मौत की रकम कभी भी 10 लाख पार कर नहीं पाती है लेकिन इस बार रकम 17 लाख हो गई । और 9 बिहारियो की मौत तले प्रति बिहारी के परिजनो की झोली में 19 लाख रुपये आ गये । तो पैसा जनता का । मौत जनता की । और जिम्मेदार कोई नहीं । सत्ता भी नेता । सीएम भी नहीं । पार्टी भी नहीं । नेता भी नहीं । तो फिर इस लोकतंत्र में हम आप है कहां ये सोच कर जरा समझना शुरु किजिये कि कैसे हर सत्ता , हर पार्टी , हर नेता जनता को मुश्किल में डाल कर मुश्किल का समाधान करने का वादा करते है । पहले जनता क भावनाओ को पालेटिकल टूल बनाया जाता था । अब तो लोगो के आस्तितव से खुला खिलावाड शुरु हो चुका है और जन आक्रोष ना पनपे और संकट राजनीति पर ना आये इसके लिये गाहे बगाहे सभी नेता पार्टी लाइन छोड कर एक भी हो जाते है और जनता की परेशानियो के बीच जायके का मजा भी लेते है । तो आपको इसके लिये तीन दिन पहले का इंडियन एक्सप्रेस देखना पडेगा ।
दिल्ली के अखबार में 5 नवबंर को एक तस्वीर छपी । तस्वीर में खाने की गोल मेज पर चारो तरफ सात नेता बैठे थे । जिसमें देश के गृह मंत्री अमित शाह , रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह , पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार , काग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद और लोकसभा स्पीकर ओम बिरला के अलावे मेजबान उपराष्ट्रपति वैक्या नायडू थे । कह सकते है खाने की प्लेट में राजनीति तो परोसी नहीं जाती तो फिर इसे राजनीतिक तौर पर क्यो देखा जाये । लेकिन देश के सामने जब राजनीतिक मुद्दे नागरिको की अस्मिता से जुड रहे हो । मुद्दो के आसरे देश के नागरिक अपने आस्तित्व को टटोलने के लिये मजबूर हो रहे हो । और राजनीतिक दलो की पहल नागरिको की भावनाओ को सीधे साथ जोडने या विरोध करने वाली स्थितियो को जन्म दे रही हो , तब क्या अलग अलग विचारो के जरीये अपनी अपनी राजनीति को साधते नेता एक ही टेबल पर बैठे नजर आये तो उसे नागरिक कैसे देखे । खासकर तब जब नागरिको के सामने भी अपने अनुकुल राजनीतिक दल को परखने या देखने के अलावे कोई दूसरा हथियार होता नहीं है । मसलन धारा 370 पर कश्मीरियों का रुख अगर गृह मंत्री अमित शाह को खलनायक के तौर पर देखता होगा तो गुलाम नबी आजाद उस वक्त संसद से सडक तक कश्मीरियो की भवनाओ को उबार कर मरहम लगाते हुये कश्मीरियो के निकट होगें । नोटबंदी और जीएसटी की चपेट में आये भारत के नागरिकों की भावनायें सरकार के इतने खिलाफ हो चुकी है कि उन्हे मनमोहन सिंह अच्छे लगने लगे है । और मनमोहन सिंह मोदी सत्ता को खलनायक कहने से ना चुकते हो । और प्रदानमंत्री मोदी भी मनमोहन सिंह को रेनकोट पहन कर भ्रष्ट्र होने का जिक्र संसद में ही करते हो । कई मौके पर गुलाम नबीं देश के गृह मंत्री को तडीपार अपराधी कहने से नहीं चूके हो । बीजेपी के बडे नेता इशारो इशारो में चुनाव प्रचार के वक्त शरद पवार को दाउद से जोड चुके हो ।लवासा की फाइल में पवार की भूमिका पर मुहर सरकारी एंजेसी लगा चुकी हो । अयोध्या पर फैसला भी समाज में लकीर खिंच गया और नागरिक संशोधन विधेयक पर कैबिनेट की मुहर ने तो देश के मुस्लिमो के सामने उनके नागरिक होने को लेकर प्रश्न चिन्ह लगा दिया । और इस भावना को विपक्ष बाखुबी समझ भी रहा है कि अब नागरिकता भी देश में मुद्दा हो सकती है । या मोदी सत्ता की हथेली पर नागरिकता का सवाल रेंगने लगा हो और पवार हो या काग्रेस इसे नागरिक संशोधन बिल के विरोध में कसीदे पञ रहे हो तो कही ना कही गुस्से में आये नागरिको को राहत तो मिलती होगी कि विपक्ष उनकी भावना तो समझ रहा है । लेकिन जायके की मेज पर एक साथ बैठ कर या फिर इन्फ्रस्टक्रचर तक खडा ना कर पाने के हालात तले अगर सभी नेता-दल एक सरीखे लगे तो एक आम नागरिक को क्या लगेगा । यानी सवाल अपने ही देश में अपनी जमीन पर खडे होने के लिये राजनीतिक मंच की तालाश में नागरिक ही है । जहा उसकी बात सुनी जाये । कमोवेश लिचिंग के दायरे में आया समाज भी सत्ता को लेकर संदेह इस हद तक पाल चुका है जहा उसे लगता है कि राजनीतिक विचार ही लिचिंग को होने दे रहे है और कानून व्यवस्था जानबूझकर लिचिंग के आगे कमजोर है । तो सवाल तीन है । पहला क्या मौजूदा वक्त में राजनीति उन मुद्दो को उठा कर अमली जामा पहला रही है जिससे जनता का जुडाव सीधा हो । दूसरा , नागरिको के सामने किसी भी मुद्दे के समर्थन और विरोध के आलावे कोई जगह नहीं है । तीसरा , मुद्दों का मतलब यही है कि जो सरकार के निर्णय के साथ है वह सत्ताधारी पार्टी को वोट देगा और जो सरकार के मुद्दो का विरोध करेगा वह विपक्ष को वोट देगा । क्योकि सरकार के निर्णय का विरोध करने पर नागरिको के सामने विपक्ष की राजनीति के साथ खडे होने के अलावे कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है । और विरोध अगर बडा होता चला गया । उसमें राजनीति आग तेज पकडती चली गई तो फिर कल सत्ता पलटेगी और खाने की मेज भी घुम जायेगी । अब के मेजबान कल के मेहमान होगें और अब के मेहमान कल मेजबान हो जायेगें । यानी मेजबान काग्रेसी मनमोहन सिंह हो जायेगें और मेहमान के तौर पर बीजेपी नेता अमित शाह होगें । कमोवेश यही सिलसिला भारतीय राजनीतिक व्यवस्था या लोकतंत्र को समेटे संसदीय राजनीति का ऐसा सच है जिसमें विचारधारा नहीं है और सत्ता ही अपने आप में ऐसी विचारधारा है जहा सत्ता के सामने विपक्ष की हैसियत चीटीं से भी छोटी है । तो सवाल दो है , पहला, क्या भारत सत्ता के पाने और सत्ता बदलने के खेल में जा फंसा है जिसमें वोट देना ही लोकतंत्र को जी लेना है । दूसरा , क्या नागरिको की भावनाये ही लोकतंत्र का मिजाज तय करती है और मुद्दो पर जन-भवनाये ही भारत की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से जुडी है और इसे प्रभावित करने की सोच ही राजनीति है ।
अगर दुनिया के दूसरे देशो की राजनीतिक परिस्थितयो को समझे तो वहां विचारधारा के साथ राजनतिक दल की पहचान जुडी है । और राजनीतिक सत्ता में कमोवेश दो राजनीतिक दलो की ताकत वैचारिक तौर पर एक सरीखे है । अमेरिका में डेमोक्रेट या रिपबल्किन हो या ब्रिट्रेन में बहुदलिय व्यवस्था के वाबजूद दो मुख्य पार्टी कंजरवेटिव पार्टी और लेबर पार्टी है । कुछ ऐसा ही फ्रांस, जर्मन या अन्य देशो में है । वहा सत्ता में जो भी रहे विपक्ष के तौर पर विपक्षी पार्टी की विचारधारा और उसकी भागेदारी मायने रखती है । लेकिन भारत का संकट बिलकुल अलग है । यहा सिगंल पार्टी की ताकत ही सत्ता का प्रतिक है । आजादी के बाद काग्रेस की सत्ता को तीन दशक तक कोई डिगा नहीं सका । क्योकि आजादी के आंदोलन की विरासत काग्रेस समेटे हुये थी तो राजनीति साधने के लिये किसी दूसरे दल में ताकत नहीं थी । ध्यान दें तो आजादी के बाद संसदीय चुनाव में जनसंघ से बडी पार्टी के तौर पर वामपंथियो की जीत होती थी । और वामपंथ विचारधारा के साथ जुडा था लेकिन वाम संधर्ष कभी भी सत्ता पाने के लिये बैचेन नहीं दिखा बल्कि भारत की सामाजिक-आर्थिक विसंगतियो से लडता हुआ ही दिखायी दिया । और मोरारजी देसाई की सत्ता हो या वीपी सिंह की सत्ता विचारधारा कही नहीं थी । मुद्दे थे । एक वक्त आपातकाल तो दूसरे वक्त बोफोर्स का मुद्दा था । मुद्दो के आसरे जनता की भावनाओ में उभार और उबाल था । जन-भावनाओ को ही सत्ता के खिलाफ ले जाने या कहे सत्ता पाने के लिये वोटर का इस्तेमाल हुआ । सत्ता पलटी तो लोकतंत्र की जीत मान ली गई । महाऱाष्ट्र में 1978 और 2019 में सत्ता का बनना भी विचारधारा से इतर सात्ता पाने के जुगाड का लोकतंत्र है । लेकिन लोकतंत्र के इस खेल के भीतरी सच को समझने की स्थिति में कभी जनता को लाया नहीं गया कि आखिर राजनीतिक सत्ता सिंगल पार्टी के तौर पर ही क्यो रहती है । एक वक्त काग्रेस की सत्ता थी तो बीजेपी के होने का कोई मतलब नहीं था । और अब बीजेपी की सत्ता है तो काग्रेस के होने का कोई मतलब नहीं है । काग्रेस इतनी सेन्टरिस्ट पार्टी रही कि कमजोर होने पर भी उसने ऐसी व्यवस्था बनायी कि उसके साथ कोई भी आ सकता है और बीजेपी ने 2014 में बडी जीत के साथ अपनी पहचान अति राइटिस्ट की ही कुछ इस तरह बनायी है जिसमें वह सिंगल पार्टी के तौर पर ही बढ सकती है । यानी एक वक्त काग्रेस की सत्ता थी । अब बीजेपी की सत्ता है । और काग्रेस के खिलाफ 1977 में 42 दल एक साथ आ गये जिसमें जगजीवन राम सरीखे खांटी काग्रेसी भी थे तो 2019 में बीजेपी के खिलाफ धीरे धीरे गठबंधन का समूह बडा भी हो रहा है क्योकि बीजेपी अपने विस्तार में क्षत्रपो के खत्म होने और काग्रेस के सिमटने की कहानी को कह रही है । विचारधारा तो सत्ता है लेकिन नीतिया भी कैसे 360 डिग्री में घूम चुकी है ये इससे भी समझ सकते है कि कभी काग्रेस कारपोरेट के साथ खडी रही तो अब बीजेपी का कारपोरेट्रीकरण हो चुका है और काग्रेस उन मुद्दो को साथ ले चुकी है जिसे विपक्ष में रहते हुये बीजेपी उठाती थी । मसलन किसान-मजदूर-देसी इक्नामी का सवाल । तो फिर सत्ता परिवर्तन अगर नागरिको के हालात नहीं बदलते । सत्ता की नीतियों से जनता का गुस्सा विपक्ष को सत्ता तक पहुंचा देता है और राजनीतिक दलो की विचारधारा सत्ता पाने के लिये ही है तो फिर अलग अलग मुद्दो पर खून खौला देने वाली संसद या सडक की बहस के बाद खाने की टेबल पर एक साथ बैठने की तस्वीर संदेश क्या देती होगी । या फिर काग्रेसी नेता चिंदबरम और शिव कुमार को अगर गलत तरीके से जेल भेजा गया तो खाने की टेबल पर गृह मंत्री अमित शाह के साथ मनमोहन सिंह या गुलाम नबी आजाद कैसे बैठ सकते है । या फिर हमारा लोकतंत्र क्या वाकई इतना स्वस्थ्य है कि जो विपक्ष एक तरफ सत्ता को कटघरे में ये कहकर खडा कर रहा हो कि उसकी सियासत देश बांट रही है लेकिन देश बंटने वालो के साथ बैठकर भोज किया जाये । और जो जनता देश बांटने की नीतियों से सीधे प्रभावित हो रही है वह भोज के टेबल पर साथ बैठे नेताओ के पकवानो को खाते हुये देख कर ये मान लें कि प्लेट में राजनीति परोसी नहीं जाती तो हर्ज क्या है और राजनीति से जन भावनाओ को उभार कर गुस्सा भर दिया जाता है तो उसमें भी हर्ज क्या है । और जब सिस्टम सिर्फ सत्ता के इशारे पर नाचता हो तो मौत की एवज में 2 लाख हो या 17 लाख या 43 मौत की एवज में 119 लाख रुपये । जीत तो सत्ता की ही होगी । और हारना या मरना जनता को ही है ।
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