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Punya Prasun Bajpai 2019 Last Blog |
किस उम्मीद तले 2020 का स्वागत करें
लेखक पुण्य प्रसून बाजपाई जी की कलम से लिखा लेख विस्तार से !
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21 वी सदी का दूसरा दशक भी बीत रहा है । 2019 को पीछे छोड दुनिया 2020 में कदम रखने को तैयार है । लेकिन हम बीतते बरस के साथ आगे नहीं पीछे देखने को तैयार है । देश की सामाजिक-आर्थिक स्थितियां आगे की जगह पीछे लौट रही है । नागरिकता का सवाल 1947 के जख्मों को कुरेद रहा है तो डांवाडोल अर्थव्यवस्था 1991 के हालात को याद दिला रही है । आजादी के 72 बरस बाद भी संविधान को लेकर कई सवाल उठ रहे है ।तो बहुतेरे सवाल लोकतांत्रिक मूल्यो को लेकर है । भाषा-संस्कृति से जुडे सवाल भी नागरिको के वजूद से जा जुडे है । दस बरस पहले तक 2020 में महाशक्ति बनने का ख्वाब संजोये भारत अब एक असंमजस की स्थिति में 2020 में कदम रखने को तैयार है । हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना तले नागरिकता का सवाल मुसलमानो को डरा रहा है जिन्हे अपने वजूद को साबित करने के लिये अपनी जडो को खोजने का काम दिया गया है । हिन्दुओ के सामने धर्म और भूख की लडाई में से किसी एक को चुनने की राजनीतिक चुनौती है । आदिवासी-दलित जिन्दगी के उस अनछुए रास्तो से गुजरने के लिये तैयार है जहा उनके हक को संविधान का जामा पहना कर विकास के मार्ग को बनाने के लिये उन्हे उनकी जमीन से ही बेदखल किया जा रहा है । किसान-मजदूर के सामने अपनी उपज की किमत भी मिल ना पाने का सवाल है तो शहरी डिग्रीधारियो के सामने रोजगार ना मिल पाने के सवाल है । महिलाये अब भी पुरुष दरिदंगी के खिलाफ लडाई लडने और न्याय ना मिल पाने पर सडक पर संघर्ष करने को ही मजबूर है ।
तो क्या भारत 21वी सदी में पिछड रहा है । या फिर तीन से पांच ट्रिलियन की इकनामी का सपना हर मुश्किल हालात पर रेड कारपेट डालने को तैयार है । और एक सुनहरे युग की तरफ भारत 2020 में बढ जायेगा । खासकर तब जब दुनिया पूंजी की गुलाम है । और भारत दुनिया का सबसे बडा बाजार है । लेकिन पहली बार बीतते बरस की आहट के बीच सबसे बडा सवाल यही हो चला है कि कही आजाद भारत की अर्थव्यवस्था सबसे बडे संकट में तो नहीं फंस चुकी है । और सत्ता जिस हिन्दु राष्ट्र के ख्वाब को संजोये हुये है उस राष्ट्र में वह अपने नागरिको को दो वक्त की रोटी भी कैसे मुहैया करायेगी । 1991 में पहली बार अर्थव्यवस्था ने इस तरह दम तोडा था कि उस वक्त चन्द्रशेखर सरकार बजट भी पास करा नहीं पायी थी । मूडिज समेत सभी रेटिग्स संगठनो ने भारत की इक्नामी को डूबते हुये जहाज के तौर पर बता दिया था । विश्व बैक और आईएमएफ ने भारत को सहायता देने से हाथ खिंच लिये थे । तब पहली बार भारत का सोना रिजर्व बैक से निकालकर बैक आफ इंग्लैड और बैक आफ जापान के पास गिरवी रखना पडा था । जिसकी एवज में 400 मिलियन डालर मिले और फिर देश में सत्ता बदली और भारत की इक्नामी के रास्ते बदले । लेकिन 1991 का दौर तो जाति-धर्म [ मंडल-कंमडल ] की उस राजनीतिक अस्थिरता की देन थी जिसमें सियासी ताकत पाने और सत्ता चाहने के लिये भारत को कई दशक पीछे धकेला गया । लेकिन 2019 में तो सत्ता ताकतवर है । जनता ने लोकतंत्र के तराजू में वोट की इतनी भरी पोटली रख दी है कि बिना किसी सहयोग के अपने बूते निर्णय लेने की ताकत सत्ता के पास है । फिर हालात 1991 से बदतर क्यों हो चले है । क्या सत्ता सही निर्णय ले नहीं पा रही है । या फिर सत्ता के सामने भी मुश्किल हालाता है । हालात समझे तो 1990 में खाडी युद्द ने तेल की किमतो में आग लगा दी थी । 2019 में अमेरिका चीन ट्रेड वार ने भारत के सामने किसे कितना बाजार थे , ये मुश्किल है । 38 बरस पहले खजाने में जमा विदेशी पूंजी खत्म हो चली थी । 38 बरस बाद विदेशी निवेशको के सामने भारत के असंबमज भरे माहौल में निवेश करने का संकट है । तब मंहगाई दर 12.7 फिसदी तक पहुंच गई थी । अब औसत 8 फिसदी पार कर चुकी है । सब्जी-खाने पीने सामान 10 फिसदी पार कर चुके है । तब आंतरिक कर्ज 53 फिसदी[जीडीपी] हो गया था । अब आंतरिक कर्ज 45 फिसदी है । लेकिन 1991 और 2019 के भारत में इक्नामी हजार फिसदी से ज्यादा बढ चुकी है । 1991 में जीडीपी 226 बिलियन थी तो 2019 में जीडीपी तीन ट्रिलियन है । लेकिन इस बढी हुई इक्नामी और विस्तार पा चुके भारत का सच ये है कि कमोवेश हर क्षेत्र ढलाव पर है । इक्नामी आगे बढने की जगह पीछे हो चली है । सरकार के पास देश का पेट भरने के लिये पूंजी नहीं है । रोजगार नहीं है । लोगो की जेब खाली है तो नागरिक बाजार में सामान खरीदने की स्थिति में नहीं है । मसलन टैक्स रेवन्यू लगातार कम हो रहा है । सितबंर में 28445 करोड था तो अटूबर में घटकर 10710 करोड हो गया । सरकार के पास पूंजी कम आ रही है खर्च बढ रहे है । जैसे इसी बरस अक्टूबर के महीने में पूंजी आई 9,11,670 करोड लेकिन खर्च हुआ 15,25,500 करोड रुपये । बिजनेस कन्फिडेन्स ग्रोथ माइनस 12.8 फिसदी पर आ गया है तो उपभोक्ता कन्फिडेंस ग्रेथ माइनस 3.1 फिसदी हो गया है । कच्चे तेल का उत्पादन घट गया है । आयात की तादाद बढ गई है । हालात इतने बुरे हो चले है कि बिजली उत्पाद भी कम हो गया है क्योकि उघोगो में माल उत्पादन ही नहीं हो पा रहा है । रोजगार मिलना तो दूर रोजगार छिनने के हालात तमाम फैक्ट्रियो में बन चले है । 1991 की तुलाना में 7 फिसदी से ज्यादा जनसंख्या के पास काम नहीं है । मद्रास इस्टीट्यूट आऱ डेवलपमेंट स्टडीज से जुडे एस सुब्रमण्यम के रिसर्च-एनेलैसिस को माने तो देश में गरीबी की रेखा से नीचे की तादाद 2011-12 से 2017-18 के बीच 31 फिसदी से 35 फिसदी हो गई है । यानी देश में हर तीसरा नागरिक गरीबी रेखा से नीचे है । और 130 करोड जनसंख्या के देश में यूपी,बिहार,झारखंड, ओडिसा,छत्तिसगढ और मध्यप्रदेश जो कि करीब 52 करोड जनसंख्या समेटे हुये है इसमें हर दूसरा नागरिक ही बीपीएल यानी गरीबी रेखा से नीचे है । यानी 1991 की तुलना में अब ज्यादा नागरिक गरीब है । और 5 ट्रिलियन का सपना संजोये भारत का अनूठा सच ये भी है कि सिर्फ एक फिसदी नागरिको के पास देश का 51 फिसदी संसाधन/पूंजी है । अगर सत्ता के करीबी कारपोरेट को छोड दे तो पहली बार देश के कारपोरेट समूह की हालत ये हो चली है कि जितना मुनाफा उन्हे मिलता है उससे ज्यादा बिजनेस में लगी पूंजी पर टैक्स या कहे ब्याज देना पडता है । मसलन एक लाख ब्याज है तो मुनाफा सिर्फ 60 हजार का ही है । इसी प्रकिया में बैक एनपीए का बढना । गैर बैकिग संस्थानो का दिवालिया होना । रियल स्टेट इनवेंटरी 22 लाख करोड की है । और सरकार ने रियल इस्टेट को 25 हजार करोड की मदद का एलान किया । सरकार का खजाना खाली है । टैक्स, जीएसटी, डिसइनवेस्टमेंट तक में जो टारगेट था वह भी रकम आ नहीं पा रही है । तो सरकार अब क्या करें । मौजूदा वित्तीय वर्ष में डिसइनवेस्टमेंट का टारगेट 1.05 लाख करोड का था लेकिन दिसबंर तक सिर्फ 17,364 करोड ही आ पाये है । राज्यो को जीएसटी का हिस्सा अभी तक दिया नहीं जा सका है और राज्यों से आने वाला डीएसटी भी लगातार कम होता जा रहा है ।
तो 2020 का स्वागत किया कैसे जाये । या 2019 से आगे देश देखना बंद कर दुबारा अपने अतीत को ही निहारना शुरु कर दें । क्योकि जिन नागरिको की न्यूनतम जरुरतो को भी पूरा करने में राज्य सक्षम हो नही पा रहा है वहा नागरिक के नागरिक होने के प्रमाण पत्र में फंसा देने से क्या रास्ता निकल आयेगा । या फिर देशभर में सडक पर उतरते नागरिको की बढती तादाद 2019 में फेल होते राज्य की ऐसी कहानी कह रही है जिसमें एक तरफ देश विभाजन के घाव को याद कर सिहर रहा है । तो दूसरी तरफ आधुनिक तकनीक के जरीये दुनिया से संवाद बनाती युवा पीढी के सामने सवाल है कि वह दुनिया के आर्थिक विकास की लकीर को देश में खिंचने के लिये संघर्ष करे या अपने वजूद को साबित करने में ही उलझ कर रह जाये । शायद पहली बार 2019 के आखिर में ये सवाल है कि वो किस उम्मीद और भरोसे से 2020 का स्वागत करें ।
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