प्रसून को इस्तीफ़ा देना पड़ा है। अभिसार को छुट्टी पर भेजा गया है। आप को एक दर्शक और जनता के रूप में तय करना है। क्या हम ऐसे बुज़दिल इंडिया में रहेंगे जहाँ गिनती के सवाल करने वाले पत्रकार भी बर्दाश्त नहीं किए जा सकते? फिर ये क्या महान लोकतंत्र है? धीरे धीरे आपको सहन करने का अभ्यास कराया जा रहा है। आपमें से जब कभी किसी को जनता बनकर आवाज़ उठानी होगी, तब आप किसकी तरफ़ देखेंगे। क्या इसी गोदी मीडिया के लिए आप अपनी मेहनत की कमाई का इतना बड़ा हिस्सा हर महीने और हर दिन ख़र्च करना चाहते हैं? आप कहाँ खड़े हैं ये आपको तय करना है। मीडिया के बड़े हिस्से ने आपको कबका छोड़ दिया है। गोदी मीडिया आपके जनता बने रहने के वजूद पर लगातार प्रहार कर रहा है। बता रहा है कि सत्ता के सामने कोई कुछ नहीं है। आप समझ रहे हैं ऐसा आपको भ्रम है। आप समझ नहीं रहे हैं। आप देख भी नहीं रहे हैं।
व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी का मुल्क, साहस भी कोई चीज़ होती है
व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी का मुल्क, साहस भी कोई चीज़ होती है
सिनेमा हमेशा सिनेमा के टूल से नहीं बनता है। उसका टूल यानी फ़ार्मेट यानी औज़ार समय से भी तय होता है। व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी के छात्रों के लिए बनी इस फ़िल्म को आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के चश्मे से मत देखिए। व्हाट्स एप ने हमारा आपका क्या हाल कर दिया है, उससे देखिए। एक फ़िल्मकार तय करता है वह उसी के फ़ार्मेट में जवाब देगा।
वह जवाब देकर निकल जाता है। उतनी ही चालाकी और साहस के साथ। इस दौर में बोलने पर संपादक एंकर निकलवा दिए जाते हों, उसी दौर में कोई सुना के निकल जाता है। सेंसर सर्टिफ़िकेट लेकर !
वह जवाब देकर निकल जाता है। उतनी ही चालाकी और साहस के साथ। इस दौर में बोलने पर संपादक एंकर निकलवा दिए जाते हों, उसी दौर में कोई सुना के निकल जाता है। सेंसर सर्टिफ़िकेट लेकर !
अनुभव सिन्हा की फ़िल्म मुल्क की बात कर रहा हूँ । शाहिद और गोड्से को आमने सामने रख देती है। चौबे जी और मोहम्मद अली को रख देती है। दोनों के गुमराह बच्चों को सामने रख देती है। फिर इन सबको दर्शकों के सामने रख देती है। दर्शक जो व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी से पहले उल्लू बन चुका है, वो उल्लू बनकर बैठा है। हंस रहा है। फ़िल्म में भी और हॉल में भी। फ़िल्म उन चैंपियनों को भी मौक़ा देती है जो मुसलमानों के एक्सपर्ट हो चुके हैं कि ‘वो’ लोग कैसे कैसे होते हैं और उनको भी रख देती है जो जानते हैं, उनके साथ जीते हैं मगर इन चैंपियनों के बहकावे में आ जाते हैं। सारे उल्लू इसी फ़िल्म में जमा हैं। दानिश भी उल्लू है।
मुख्यधारा का मीडिया इन सवालों से नहीं टकराएगा। डर गया है। तो कोई तो आगे आएगा। यह फ़िल्म है या नहीं या फिर टीवी से निकली फ़िल्म है जो वापस टीवी में घुस जाना चाहती है, आप देखिए। इसका एक गाना है ठेंगे से। याद रखिए। कुछ सवाल दोनों तरफ़ भी छोड़ जाती है कि भाई देखो अपना अपना। कुछ बेहद ज़रूरी हिस्सा तब गुज़र जाता है जब आपको लगता है कि ये तो आप जानते हैं और बेख़बर हो जाते हैं। व्हाट्स एप चेक करने लगते हैं! उसी पर तो फ़िल्म है। अब जज आजकल एंकरों की तरह देखे जाने लगे हैं। वही कि जिधर धारणा होगी, भीड़ होगी, सरकार होगी, उधर जज भी होंगे। यह बात जजों ने ख़ुद कही है। इसलिए कोई जज इस व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी की फैलाई धारणा के ख़िलाफ़ फ़ैसला दे दे, फ़ेयर रहे, वो भी अजीब लगता है! काम करने से पहले हर कोई शक के दायरे में है। मुल्क ही सवालों के दायरे में है। झूठ को सच की तरह बड़ा किया जा रहा है। उसके सामने लोगों को प्यादा बनाया जा रहा है। देखकर बताइयेगा मुल्क कैसी लगी। आपका मुल्क कैसा लगा ? कभी हो सके तो भारत में बनी मुल्क़ और पाकिस्तान में बनी ख़ुदा के लिए दोनों को साथ रखकर देखिएगा।
हाँ साहस की बात तो भूल ही गया। ध्वनि के हिसाब से, शब्दों के उच्चारण से संस्कृत निष्ठ हिन्दी न विद्वान बनाती है और न अच्छा वक़ील। इस एरोगेंस( अहंकार) को खोखला और पंचर कर देती है मुल्क। क़ौम और धर्म की बहस का हिसाब को नहीं हो सकता मगर क़ौम के चिरकुट रखवालों की कान तो उमेठी ही जा सकती है। सो उमेठी गई है। वेल डन अनुभव।
Comments
Post a Comment
If You have any doubt, please let me know.