आज गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर की जयंती है, सबसे पहले उनको नमन। कहते हैं कि शासक जब इतिहास बोध से शून्य हो तब जनता को इतिहास पर पैनी नजर रखनी चाहिए क्योंकि निकम्मा शासक वर्तमान में जिंदा लोगों के सवालों को इतिहास के गड़े मुर्दे उखाडकर ढंकने की कोशिश करता है। आज मैं आपका ध्यान टैगोर के राष्ट्रवाद और सघियों द्वारा राष्ट्रगान के विरोध पर आकर्षित करवाना चाहता हूँ। गुरुदेव ने राष्ट्र को शीशा और मानवता को हीरा बताया। उन्होनें कहा कि “मैं हीरे के दाम में शीशा नहीं खरीदूंगा, मैं हमेशा मानवतावाद को राष्ट्रवाद से ऊपर मानता हूँ।” यदि आज वह ये बात बोलते तो सत्ता में बैठे लोग जो उनको नमन कर रहे हैं, तुरंत उनको एंटी-नेशनल या देशद्रोही बोल देते।
आखिर क्या मजबूरी है कि तिरंगा और 'जन-गण-मन' का विरोध करने वाले लोग आज उस पर अपनी सत्ता टिकाए हुए हैं। दरअसल इनका ख़ुद का इतिहास आजादी की लड़ाई से गद्दारी का है, इसलिए इनको उन्हीं का झूठा सम्मान करना पड़ता है जिनको इतिहास में इन्होनें गालियां दी है। आपको बता दूँ कि संघियों ने कहा था कि 'जन-गण-मन' हमारा राष्ट्रगान नहीं हो सकता क्योंकि यह गीत अंग्रेजी शाषक जॉर्ज पंचम के सम्मान में लिखा गया है, जबकि टैगोर ने स्वयं इस बात का कई बार खंडन किया था। जब इस गान के विरोध पर इनको जनसमर्थन नहीं मिला तो नया शगूफा छोड़ा कि इससे 'सिंध' शब्द निकाल देना चाहिए क्योंकि अब वो हमारा हिस्सा नहीं है। ये वही सिंध है जहाँ सावरकर और जिन्ना ने मिलकर 1942 में सरकार बनाई थी।
क्या इतिहास को मिटाना संभव है? क्या मोहनजोदाड़ो को हमें अपने इतिहास से हटा देना चाहिए? क्या हम यह मान लें कि भारत के इतिहास का सिंधु घाटी सभ्यता से कोई लेना देना नहीं है? पता नहीं संघी लोगों को ज्ञान से इतनी दुश्मनी क्यों है? शायद अज्ञानता ही इनकी सत्ता का आधार है। तभी तो एक एक करके देश के विश्वविद्यालयों पर ये लोग हमला कर रहे हैं। इनसे हमें इतिहास और वर्तमान दोनों को बचाने की जरूरत है, तभी देश का भविष्य बचेगा। तर्क, मानवतावाद और संवाद के आधार पर निर्मित समाज ही गुरुदेव को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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